स्वदेशी एवं सहकारिता
महात्मा गाँधी के राजनैतिक विचारों में सहकार एवं स्वदेशी का विचार काफी महत्वपूर्ण है। वे इस स्वदेशी विचार का उपयोग जीवन के हर पक्ष में करते रहे, केवल सामाजिक तथा राजनैतिक पक्ष में ही नहीं बल्कि आर्थिक पक्ष में भी। वास्तव में भारत की आर्थिक उन्नति के लिये दृष्टि का स्वावलम्बी बनना उन्हें आवश्यक प्रतीत होता रहा जो केवल स्वदेशी वस्तुओं के भारत में उपयोग से ही सम्भव था। उन्होंने स्वदेशी को असहयोग आन्दोलन का एक अभिन्न अंग बनाया।
स्वराज्य, स्वदेशी तथा स्वावलम्बन समानार्थक हैं। स्वदेशी देश की आत्मा का धर्म है। स्वदेशी की शुद्ध सेवा करने से परदेसी की भी शुद्ध सेवा हो जाती है। सहकार इसका मूल है।
'स्वदेशी' शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'अपने देश का'। गाँधी जी भी 'स्वदेशी' शब्द का यही मूलार्थ लेते हैं। उनके अनुसार इस शब्द का भावात्मक अर्थ भी है तथा निषेधात्मक भी। भावात्मक दृष्टि से यह एक राजनैतिक तथा आर्थिक सिद्धान्त प्रस्तुत करता है जो राष्ट्रीय आधार बन जाता है किन्तु निषेधात्मक रूप में यह अन्तर्राष्ट्रीयता का एक अर्थपूर्ण आधार प्रदर्शित करता है। गाँधी जी का कहना है कि 'स्वदेशी' धर्म का पालन करने वाला परदेसी से कभी द्वेष नहीं करेगा'।
गाँधी जी का स्वदेशी विचार सहकारिता से परिपूर्ण अहिंसा का ही एक रूप है। हमारा लक्ष्य गाँवों को संगठित करना व उन्हें अधिक सुखी, सम्पन्न व आरोग्यपूर्ण जीवन प्रदान करना है इसलिए प्रत्येक ग्रामवासी को इकाई व व्यक्ति दोनों रूपों में विकास के अवसर प्रदान करना है। इसके लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में सहकारी प्रयत्नों की आवश्यकता है।
स्वावलम्बन के लिये स्थानीय योजना केवल स्थान विशेष के लिए लाभदायक न होकर, प्रमुख योजना में समन्वित होनी चाहिए। देश की कोई भी योजना यदि जनता की प्राथमिक आवश्कताओं की उपेक्षा करके बनायी जायेगी, मानव शक्ति का ध्यान नहीं रखा जायेगा या पूँजी के अभाव की उपेक्षा की जायेगी तब सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
गाँधी जी की सहकार भावना से युक्त योजना आज के सन्दर्भ में प्रासंगिक तो है ही, साथ ही व्यवहारिक भी है क्योंकि यह वर्तमान अर्थपीड़ित विश्व को ऐसी आर्थिक व्यवस्था प्रदान करती है जो शान्ति, प्रजातन्त्र व मानवीय मूल्यों पर आधारित है। उनकी योजना सर्वाधिक प्रभावशाली, मौलिक व व्यवहार योग्य है। आज तक किसी भी देश में बेरोजगारी के निवारण के लिए ऐसी योजना नहीं बनाई गई है। गाँधी जी ग्रामद्योगों के विकास के लिए विज्ञान व तकनीक के प्रयोग के विरूद्व नहीं थे, यद्यपि वे स्वचालन के विरूद्ध थे क्योंकि भारत जैसे देश में उसकी कोई उपयोगिता नही है।
गाँधी जी मानव की गरिमा में विश्वास करते थे तथा प्रत्येक व्यक्ति को दिव्य मानते थे। गाँधी जी ने गाँवों का नगरों द्वारा शोषण देखा व गाँवों व नगरों के मध्य बढ़ती हुई खाई को भी देखा और समझा। अतः उन्होंने कहा कि ग्रामीण विकास सार्वधिक स्वभाविक विकास है। ग्राम पुनः निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। विकास नीचे से ही प्रारम्भ किया जाए, परन्तु इसका अर्थ यह नही है कि ऊपर से कुछ किया ही न जाए। विकास के लिए रचनात्मक कार्यक्रम जन-सहभागिता व सहकारिता के माध्यम से हो सकता है। भारत जैसे देश के वास्तविक नियोजन में सम्पूर्ण मानव शक्ति व कच्चे माल का ग्रामों में उचित वितरण करना है। कच्चे माल को विदेश में भेजना व तैयार माल ऊँची कीमत पर खरीदना हमारे लिए केवल आत्मघाती ही प्रमाणित होगा।
उनके अनुसार बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियाँ ग्राम में उत्पादन, वितरण व विपणन के लिए कार्य करेंगी तथा बीज, खाद, कृषि उपकरण आदि उपलब्ध कराकर जनता व सरकार के मध्य कड़ी के रूप में कार्य करेंगी। सहकारी समितियाँ सभी ग्रामोद्योगों को प्रोत्साहित कर, ग्राम के पुनर्निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं। केन्द्रीकृत उद्योग केवल वही होंगे, जिनके अलावा राष्ट्र के समक्ष कोई अन्य विकल्प नहीं होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि केवल गाँधीवादी नियोजन ही, जिसमें सहकारिता, स्वदेशी और स्वावलम्बन की प्रधानता हो ग्रामीण भारत के लिये एकमात्र विकल्प है।
सदी का समस्त जन-समाज और मानव संस्कृति निरे जंगलीपन की तरफ बहकर भंयकर संकटों में फँसने से बच जाए और २१वीं सदी में अच्छी तरह प्रवेश करे।
इस प्रकार गाँधी जी का विचार पूरी तरह व्यवहारिक है। गाँधी जी की व्यवस्था में बिचौलियों के लिए कोई स्थान नहीं है।
अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विद्यमान सभी व्यवस्थाओं - पूँजीवादी व साम्यवादी से गाँववासी जीवन शैली अधिक श्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठ ही नहीं अपितु व्यावहारिक भी है। केवल इसके लिए पूरे हृदय से एकजुट होकर सहकार की भावना से प्रयत्न करने की आवश्यकता है।
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