वैद्यैद्यनाथन समिति - एक क्रान्ति
सन् २००८ में नाबार्ड ने फाईनैंशल इनक्लूजन (Financial Inclusion) के संदर्भ में एक समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने अभ्यास करके अहवाल (प्रतिवेदन) दिया। इसमें समिति ने कहा है कि अनेक राष्ट्रीकृत बैंको ने अपनी शाखाए ग्रामीण क्षेत्र में खोली हैं, इसके बावजूद आज भी देश के कुल ग्रामीण किसानों में ५१ टक्के (प्रतिशत) किसान किसी भी बैंकिंग व्यवस्था से दूर हैं। पूर्वत्तोर राज्य में इसके प्रमाण बहुत हैं, मगर महाराष्ट्र जैसे प्रगत राज्य में भी यह स्थिति २००८ में भी ३४ टक्के (प्रतिशत) है। इन किसानों का किसी भी बैंक में खाता ही नहीं है, ऋण लेने का तो सवाल ही नही। इसका अर्थ होता है कि ५१ प्रतिशत किसान आज भी या तो ऋण ही नही लेता या वह आज भी साहूकारों से ऋण लेते हैं। किसान ऋण लिये बिना खेती कर ही नहीं सकता, यह सत्य जानने के लिए किसी भी सर्वेक्षण की बिल्कुल आवश्यकता नही है। उसे ऋण की जरूरत तो है ही और यह जरूरत वह आज भी साहूकार से और कुछ अंश तक ग्रामीण कृषि सहकारी साख समितियों से पूरी कर लेता है। १९०४ के सहकारिता कानून के अन्तर्गत एक त्रिस्तरीय सहकारी ढ़ांचा निर्माण किया गया था, जिसमें ग्राम स्तर पर प्राथमिक कृषि सहकारी साख समिति की व्यवस्था की गयी थी (इस लेख में समिति कहेंगे), इन साख समितियों को निधि उपलब्ध कराने हेतु जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक और इन बैंकों का राज्य स्तर पर एक अपेक्स बैंक की रचना की गई थी। स्वाधीनता के बाद इस रचना में अच्छी प्रगति हुई है। २००३ में अपने देश में १२,३०९ साख समितियॉ, ३६० जिला बैंक तथा ३० अपेक्स बैंक थे। इन साख समितियों द्वारा किसानों को केवल क्रॉप लोन (फसल हेतु लोन) मिलता था। केवल इस व्यवस्था से न तो साख समितियॉ व्हायेबल (Viable) हुई थी ना ही जिला सहकारी बैंक। धीरे–धीरे सभी राज्यों ने इन जिला बैंको को अन्य व्यवसाय करने के लिए प्रोत्साहित किया, और उनका व्यवसाय बढ़ने लगा। साख समितियों को भी बहुतांश राज्यों ने जन वितरण व्यवस्था (PDS) काम देकर व्यवसाय बढ़ाने के लिए व्यवस्था की, मगर व्हायेबल (Viable) ना होने के कारण वह स्वतंत्र कर्मचारी भी नहीं रख पाते थे। परिणामतः कुछ राज्यों ने केडर की स्थापना की और एक-एक कर्मचारी पाँच-पाँच समितियों का हिसाब रखने लगा। खेती के लिए मिलने वाला ऋण किसान को वर्ष में एक या दो बार और वह भी अधूरा मिलता था। किसान अपनी खेती तथा निजी निर्वाह के लिए साहूकार के पास जाता ही था। परिणामस्वरूप वह समितियों का ऋण वापिस नहीं कर पाता था और समितियॉ घाटे में जाने लगती। अनेक राज्य सरकारों ने कई बार यह ऋण अंशतः माफ किये, कई बार ब्याज माफ किया। केंद्र सरकार ने भी इन्हे कई बार मदद किया। मगर २००३ के आंकड़ों से पता चला कि इस ढाचे का घाटा दस हजार करोड के ऊपर जा रहा है। इसका अर्थ साफ था कि यह त्रिस्तरीय रचना डूबने को थी। तब केंद्र सरकार ने प्रो. वैद्यनाथन की अध्यक्षता में एक समिति का निर्माण किया। इस समिति ने अभ्यास करके २००५ में अपनी रिपोर्ट दी।
इस रिपोर्ट में समिति ने घाटे के कारण और उस पर उपाय योजना के सुझाव दिये, घाटे के निम्न कारण थे :
१. हिसाब पद्धति उचित नहीं है।
२. इस रचना में तंत्रज्ञान का पूरा अभाव था।
३. कर्मचारियों को कार्य के बारें में ज्ञान नहीं था तथा उन्हे प्रशिक्षण देने की कुछ भी व्यवस्था नहीं थी।
४. तीनों स्तर पर एक दूसरे से कानूनन जुड़े होने के कारण परावलंबी थे।
५. राज्य सरकारों का दैनदिन कार्य में बहुत ही हस्तक्षेप हुआ करता था। समिति को बर्खास्त करना, निर्वाचन कार्य समय पर न करना आदि।
६. सरकारों का कृषि विषयक धोरण भी परिणाम करता था। जैसे कभी किसान का ऋण माफ किया तो जो किसान कर्ज वापिस करते हैं, उन्हें लगता कि डिफाल्ट होने से फायदा है और इस प्रकार समितियों का घाटा बढ़ने लगता।
वैद्यनाथन समिति ने इन्हीं कारणों को दूर करने के लिए सुझाव दिये। कारण स्पष्ट था कि यदि यह कारण दूर नहीं हुए और आज इस संरचना का घाटा भर दिया तो आगे चार-पाँच साल में फिर यही स्थिति आ जायेगी।
इसलिए समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिये :-
१. पूरी संचरना में हिसाब की एक पद्धति हो।
२. प्रत्येक समिति, बैंक पूरी तरह संगणीकृत हो।
३. हिसाब पद्धति तथा एम.आई.एस. (MIS) प्र० सू० प० का प्रशिक्षण दिया जाए।
४. आर्थिक दृष्टि से प्रत्येक स्तर स्वतंत्र हो
५. प्रशासकीय दृष्टि से भी प्रत्येक स्तर स्वतंत्र हो, राज्य सरकार केवल पंजीकरण और समय पर निर्वाचन कराये। यदि समितियों को लगातार ३ साल घाटा हुआ अथवा कोई भ्रष्टाचार का गंभीर मामला हो अथवा सत्त गणपूर्ति न हो तो समिति स्थगित करें। जिला बैंक भी स्वायत्त हों, मगर शासन का एक प्रतिनिधि कार्यकारी मण्डल में हो और बैंको का कार्य रिर्जव बैंक के निर्देशानुसार चले। इसके लिए प्रत्येक राज्य सरकार को अपने सहकारी कानून में संशोधन करना आवश्यक था, क्योंकि इन समितियों तथा बैंको में प्रत्येक राज्य सरकार ने पूंजी लगायी थी और बंधन भी कानून से लगाये थे।
६. पूरा घाटा भर देना, तंत्रज्ञान एवं प्रशिक्षण के लिए पूरा पन्द्रह हजार करोड़ रूपयों का पैकेज इस संरचना के लिए दिया जाए।
केन्द्र सरकार ने यह रिपोर्ट स्वीकृत की और नाबार्ड को इसके क्रियान्वयन का कार्य सौंपा। यह संरचना स्वायत्त हो, सशक्त हो इसके लिए इसी पैकेज में समितियों का घाटा भरकर प्रत्येक समिति का CRAR 7% हो इसका प्रावधान रखा गया। एक बार इतनी सहायता करने के पश्चात् समिति को बाद में कभी भी, कहीं से भी सहायता नहीं मिलेगी ऐसा प्रावधान किया गया। स्वायत्त, सशक्त, संस्था यदि चलाना नहीं आता तो ऐसी संस्था समाप्त होना ही ठीक है ऐसा विचार वैद्यनाथन् समिति ने दिया। ऐसी स्थिति लाने के लिए राज्य सरकारों को सहकारी कानून में संशोधन करना आवश्यक था। इसलिए नाबार्ड ने प्रथम राज्य सरकार, केन्द्र सरकार, और नाबार्ड के बीच एक ट्रायपार्ट एम.ओ.यू. करने के लिए कहा। इस आपसी समझौता ज्ञापन (MOU) में जहॉ केडर हो वो बर्खास्त करने की भी सूचना थी। राज्य सरकारो ने इसे स्वीकृत करने के लिए दो साल का समय लिया और २००८ में २५ राज्यों ने इसे स्वीकार किया। नाबार्ड ने २००४ के अंको पर विशेष अंकेक्षण (Special Audit) करना तथा अनुदान निश्चित करने का काय प्रारम्भ किया। इसके बाद समितियों के कर्मचारियों का चार दिन का तथा संचालकों का दो दिन का प्रशिक्षण प्रारम्भ किया। आज सभी २५ राज्यों में ८०६०६ समितियों में से ७८५३९ समितियों का विशेष अंकेक्षण (Special Audit) तथा १३ राज्यों से ६२३०१ कर्मचारियों को तथा ८८७७३ संचालकों को प्रशिक्षण दिया गया है। समान लेखा पद्धति (Common Accounting system) का Software तैयार किया है और उसका प्रतिदर्श (Module) तैयार करके राज्यों के पंजीयक सहकारी सोसाईटीज (RCS) को दिया गया है। इसका प्रशिक्षण भी अभी तक ५११०६ कर्मचारियों को दिया गया है। जिला सहकारी बैंको का भी विशेष अंकेक्षण (Special Audit) हो चुका है और उनके संचालकों तथा कर्मचारियों का प्रशिक्षण भी प्रारम्भ हो गया है।
नाबार्ड इस सुझाव का क्रियान्वयन बहुत ही अच्छे ढ़ंग से कर रहा है मगर इससे वैद्यनाथन समिति की अपेक्षाएं तथा देश की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी। आज तक की स्थिति पूर्ण रूप से एकदम बदल नहीं सकती। आज तक ये समितियां केवल फसल लोन तथा जन वितरण प्रणली PDS का काम ही करती थीं, अब अपेक्षा ऐसी है कि वह स्वतंत्र है अपना कार्य को अपने ढ़ंग से बढ ाने के लिए स्वतंत्र है। आज तक केवल समिति का सचिव और जिला सहकारी बैंक का एक अधिकारी ही समिति किसी भी संचालक को पता नहीं था, वो कुछ जानते भी नहीं थे और उन्हें यह सचिव पूछते भी नहीं थे। अपने कार्यकर्त्ताओं को ऋण मिले इसके लिए स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्त्ता सचिव तथा जिला बैंक अधिकारी को अपनाकर काम किया करते थे। जिला बैंक अपने हाथ में रहे ऐसा प्रयास हर राजनीतिक पार्टी करती थी। जिला बैंक के संचालक प्रमुखतः समितियों में से होने के कारण समितियॉ अपने हाथ में रहे ऐसा प्रयास करते थे और हर समिति के संचालकों का यही प्रमुख कार्य था।
गांव का विकास इस समिति से हो सकता है ऐसा जहां भी विचार हुआ वहां की समिति अच्छी हुई। राजनीति मुक्त जो समिति रही वहां अच्छा विकास हुआ। अपने देश में सैकेड़ों समितियॉ बहुत अच्छा काम करती हैं, मगर जैसे वैद्यनाथन समिति ने कहा कि राज्य सरकारों का हस्तक्षेप अच्छा काम नहीं होने देता था, यह सारा बदल देना और गांव के किसानों ने अपनी समिति जनतंत्र के मूल्यानुसार चलाना यह अचानक होने वाला काम नही है। नाबार्ड का प्रयास उत्तम है, मगर यह कार्य ही ऐसा है कि जिसके लिए सतत प्रशिक्षण आवश्यक है। किसानों को आत्मविश्वास दिलाना कि वे समिति चला सकते हैं, उनका संचालक मण्डल स्वायत है, राज्य सरकार का सहकारी विभाग उसे बर्खास्त नहीं कर सकता, वे उनका कार्यस्वरूप स्वयं निश्चित कर सकते हैं, ऋण देना, वसूली करना, ब्याजदर निश्चित करना, डिपॉजिट लेना, कार्य की नई दिशाएं खोजना यह समितियों के संचालक मण्डल का ही अधिकार है। यह कोई सामान्य बात नही है। महात्मा गाँधी ने नमक का सत्याग्रह करके इस देश के सामान्य व्यक्ति को अपने अधिकार का ज्ञान देने का प्रयास किया था। यह कार्य भी उसी श्रेणी का है। जिन्हे अपने अधिकार तथा कर्त्तव्य का ज्ञान है, वह अच्छा काम करते ही हैं। आज देश के करीबन एक लाख समितियों के संचालकों को यह ज्ञान देना बहुत बड़ा काम है। यह केवल सरकार एवं नाबार्ड नहीं कर सकती है बल्कि यह करने के लिए स्वयंसेवी संस्था, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को भी अपनी शक्ति लगाना आवश्यक है। हर राजकीय पक्ष यदि इसमें भाग ले तो यह कार्य जल्दी होगा। मगर उन्हे केवल अपने पार्टी का स्वार्थ देखना छोड ना पडेगा।
इस क्रियान्वयन में कुछ त्रुटियॉ सामने आ रही हैं।
(१) कुछ राज्यों में केडर व्यवस्था है। केडर समाप्त तो हो गया है मगर राज्य सरकारों को भी अचानक हजारों कर्मचारियों को अन्यत्र काम में लगाना संभव नहीं है। मगर तब तक समितियों का काम भी ठहर न जाये इसकी चिंता करनी पड़ेगी। केडर का कर्मचारी ही अनेक समितियों की समस्या है, इसलिए राज्य सरकारों ने जिला स्तर पर यह व्यवस्था करने के लिए प्रयास जारी किये हैं। जो समितियॉ अपना सचिव नियुक्ति करना चाहती हैं, उन्हे करना चाहिए और राज्य सरकारें जो केडर व्यवस्था के लिए निधि समितियों से लेती थीं, उसमें से उन समितियों को छूट देनी चाहिए।
(२) २००४ के अंको पर Special Audit हुआ और अनुदान निश्चित किया गया। वैद्यनाथन समिति का केन्द्र सरकार को कहना है कि सशक्त और स्वायत्त करके समिति किसानों के, यानि संचालको के हाथ सौंप देना चाहिए। उसके बाद यह समिति चलाना उनका काम है। वे अच्छे ढ़ंग से नहीं चलायेंगे तो कुछ हद तक नियंत्रण करने वाली बैंक अथवा नाबार्ड सूचनाएं देती रहेगी मगर वसूली नहीं हुई तो यथावकाश वह समिति समाप्त हो जायेगी केन्द्र सरकार उसे मदद करने वाली नहीं है। विच्चेद्गा अंकेक्षण Special Audit 2004 के अंकों पर २००८ में हुआ। उसके बाद प्रशिक्षण हुआ। प्रशिक्षण में आप स्वतंत्र है ऐसा कहा तो गया, मगर वह पर्याप्त नहीं था। फिर भी २००४ से २००८ तक जो व्यवहार हुआ, उससे यदि घाटा हुआ अथवा CRAR कम हुआ तो इसका जिम्मेदार कौन? उस समिति के संचालकों को २००८ तक कुछ मालूम ही नहीं था। इसका भी विचार केन्द्र या राज्य सरकारों को करना होगा। अभी २००९ तक विच्चेद्गा अंकेक्षण Special Audit का रिपोर्ट भी समिति को पहुंचाए नहीं गये हैं। वे अभी जिला सहकारी बैंको में ही हैं और आज तक पहले जैसा ही जिला सहकारी बैंक कार्य कर रहे हैं।
यह त्रिस्तरीय संरचना एक दूसरे से बहुत जुड़ी हुई है। सालों से जिला सहकारी बैंक और समिति एक साथ काम करते आय हैं। जिला सहकारी बैंक के सकल कारोबार Turn over में समितियों का बहुत हिस्सा है। इसलिए जिला सहकारी बैंक के इस विषय में काम करने वाले अधिकारी, यह समिति जनतंत्रनुसार चलाने में बहुत अच्छे मार्गदर्शक हो सकते हैं। यही सोचकर नाबार्ड ने इन्हीं अधिकारियों को मास्टर ट्रेनर बनाया था। मगर यह कार्य अच्छे ढ़ंग से नहीं हो पाया। जिला बैंक के संचालकों तथा अन्य कार्यकर्त्ताओं को इन अधिकारियों को साथ लेकर एक समिति सुदृढ करनी होगी। इसके लिए चार-पाँच सालों तक सतत प्रशिक्षण का कार्य करना पडेगा तब यह कृषि सहकारी साख समितियॉ अच्छी बनेगीं।
वैद्यनाथन समिति ने क्रान्तिकारी कार्य किया है। हर ग्राम में एक स्वायत्त, सशक्त समिति बनाकर ग्रामवासियों के हाथ में दिया है। सरकार इसे मदद करना चाहती है। यदि यह समिति ठीक ढ़ंग से चले तो हमारा ग्राम विकास का लक्ष्य बहुत शीघ्र पूरा हो सकता है। प्रत्येक समिति गांव के किसानों को हर क्षण मदद कर सकती है और किसान साहूकारों की पकड से मुक्त हो सकता है। किसान की आर्थिक क्षमता बढे तो देश की भी बढेगी और सच्चे रूप से हमारा सकल घरेलू उत्पादन GDP बढेगा।
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