महिलाओं के संगठन और सक्षमता का चिराग
देश की आधी जनसंखया महिलाओं की है। स्वाभावतः महिला भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। पूरे देश का भविष्य महिलाओं पर उनकी कार्यक्षमता और कार्यकुशलता पर निर्भर है। महिला आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण होनी चाहिए। ये समय की माँग है। विशेषतः ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति धीमी गति से होती नजर आ रही है। ये हर कार्यकर्ता की जिम्मेदारी है कि महिलाओं का उचित ढंग से संगठन करो, उनको खुद की सहायता करने के लिए प्रेरित करो। उनको आर्थिक सक्षम बनाने के लिए उत्तरदायी बनाओ। उनको राष्ट्र के प्रमुख प्रवाह में शामिल होने का अवसर दो। ये सब जिस माध्यम से होता नजर आ रहा है;उस माध्यम का नाम है ''स्वयं सहायता समूह''। इनकी अनेक विशेषताएँ होती है।
सर्वप्रथम देखा जाये, कि स्वयं सहायता समूह सिर्फ महिलाओं का ही समूह होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि स्वयं सहायता समूह सिर्फ ग्रामीण और गरीब महिलाओं का ही संगठन है संगठन की आवश्यकता सिर्फ महिलाओं को नहीं होती। बल्कि महिलाओं को संगठन की आवश्यकता सबसे अधिक होती है। उनकी खुद की अनेक समस्याएँ होती है और अपनी समस्याएँ सुलझाने में ये महिला एक दूसरे की मददगार साबित होती है।
मेरा निरीक्षण है कि महिलाएँ जब आपस में घुलमील जाती है, बाते करती है तब उनमें विश्वास काफी मात्रा में बढ़ता है। उनको ज्यादातर समस्याएँ अपने कुटुंब के स्तर पर होती है। बच्चों की शैक्षणिक समस्याएँ, पति द्वारा उनकी हो रही पिटाई, अपना कुटुंब चलाने में हो रही उलझन ये सब बाते आपस में करना उनकी जरुरी होती है। महिलाओं का शोषण, कौटुंबिक हिंसा आदि प्रमुख समस्याओं का हल इससे पहले खुदकुशी ही था। अब ये हालात बदल रहे हैं। सच कहा जाय तो महिलाओं में अब चेतना आ रही है, और आर्थिक उत्साह से स्वयं प्रेरणा से महिलाओं का संगठन होता जा रहा है। इससे सामाजिक समस्या का हल निकल रहा है।
इतिहास काल से महिलाओं को बचत करना अनिवार्य महसूस हुआ है। शायद इसी का प्रभाव 'महिलाओं का बचत करने वाली मशीन' मानकर सभी की नजरे महिलाओं पर केंद्रित रही हैं। आज तक महिलाएँ जो बचत करती थी वो भविष्य के बुरे समय को नजर रखकर परंतु अब समय की मागं बदलती जा रही है और महिलाए छोटे-मोटे व्यवसाय शुरू कर रही हैं और राष्ट्र की प्रतिव्यक्ति आय भी बढती जा रही है।
पूरे परिवार में एक ही ऐसा व्यक्ति होता है, जो कमाऊ सदस्य होता है। शहर में ये प्रमाण अलग हो सकता है। ग्रामीण महिलाओं के कुटुंब की स्थिति बड़ी शोचनीय होती है। साहुकार से कर्जा लेना, परिवार का प्रमुख व्यक्ति शराबी होता है, इतना ही नहीं बारिश में घर की हालात बहुत ही कठिन होते हैं। घर में शौचालय जैसी सुविधा नजर नहीं आती। ऐसे गरीब हालात में जिन महिलाओं ने स्वयं सहायता समूह को अपनाया उनके घर में आज शौचालय की सुविधा तो हो ही गयी, उसके साथ-साथ घर की हालत भी अभी बेहतर हो गयी है। इस कारण पुरुष भी स्वयं सहायता समूह में भाग लेने के लिए अब महिलाओं को टोकते नहीं।
हमारे बैंकों को भी अब स्वयं सहायता समूहों के लिए काम करने की आवश्यकता महसूस हो गयी है। इससे पूर्व बैंकों को सेल्फ हेल्फ ग्रुप के नाम का डर था। बहुत सी गलतफहमी थी लेकिन नाबार्ड और रिजर्व बैंक ने इसका महत्व स्पष्ट किया और धीरे-धीरे बैंकों का बिजनेस बढ़ गया। ग्राहक संखया भी बढ ती गयी। छोटे-छोटे ऋण सुविधा के कारण एन.पी.ए. का प्रमाण भी मर्यादित रहना शुरु हुआ। इसका फायदा न केवल बैंकों को, या कुटुंबों को, बल्कि सोशल लिडर्स भी ले चुके है। अब तो सभी पॉलिटिकल पार्टीज भी इसमें आगे है।
दस से बीस महिलाओं को इकट्ठा करना ये स्वयं सहायता समूह से सबसे पहला कार्य है। महिलाएं एक ही स्तर की होती है। उनकी समस्याएँ एक जैसी होती है। जैसे गाँव में पानी ना होना ये उस गाँव की समस्या है और उस गाँव में जो गुट निर्माण होगा उसका महिलाओं को इस समस्या का सामना करना अनिवार्य है।
स्वयं सहायता समूह में काम करनेवाले सदस्यों की बचत करने की आदत हो जाती है। साहूकार से ऋण लेने के बजाय अपने ही साथियों की बचत में से ऋण लेना अधिक सम्मानदायी और उचित होता है। कुटुंब स्तर पर वित्तीय अनुशासन का अनुभव महिलाएँ करने लगती है।
परिवार का एक ही सदस्य स्वयं सहायता समूह का सदस्य होता है। समूह की नियमित रूप से बैठक आयोजित की जाती है। महिलाएँ गाना गाती है। खेलकूद भी करती है। पिकनिक भी मनाती है। जिससे महिलाओं का मानसिक पोषण अच्छी तरह से होता है। ऐक्य बना रहता है और बढ़ता जाता है। किसी भी सामाजिक राजकीय, कौटुंबिक समस्या पर एक होकर लड ना उनकी आदत सी हो जाती है।
लेखा-बहियों का उपयोग करके समूह की अर्थ व्यवस्था पारदर्शी बनी रहती है। लेखा-बहियों का रखरखाव करने से धीरे-धीरे सभी समूह सदस्य मदद करते है। इन समूहों की 'फेडरेशन' भी जिलास्तर पर बनाई जाती है। फेडरेशन कार्यवृत पुस्तिका, बैठकों के नियम, अकॉंटिंग पॉलिसी और लेखा बहियों का रखरखाव आदि में मार्गदर्शन और सहायता मिलता है।
बचत राशि इकट्ठा करके नजदीक के किसी बैंक में खाता खोला जाता है। स्वयं सहायता समूह का खाता खोलना आसान होता है। एक साथ और अलग-अलग हो रही बचत और बचत करने के लिए प्रेरणादायी साबित होती है। इसमें कई बैंकों का आर्थिक सहभाग भी होने से जितनी बचत होती है उससे कई अधिक ऋण जरुरतमंद सदस्यों को अनुशासन से प्राप्त होते है।
समूह सभी नियम अनुभव से अपने आप बनाना भी सीखते हैं। इससे सामाजिक लगाव सबसे ज्यादा होने के कारण किसी भी सदस्य की कठिनाई सारे समूह की कठिनाई बन जाती है और सारा समूह जन समस्याओं पर 'हल्ला बोल' करता है। और समस्या का समाधान होता जाता है।
सभी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना आवश्यक होता है। इससे स्वयं सहायता समूह की गुणवत्ता बढ़ाई जाती है और बर्नी रहती है। समूह के सभी महिला अध्यक्षों की परिषद, समूह का सहजभाव से प्रशिक्षण होने से सामूहिक रूप से सभाओं का स्वरूप देकर कुछ विचार समाज को प्रभावित करने के लिए सामने रखे जा सकते हैं।
ऋण राशिका उपयोग उचित होने से समूह की विश्वसनीयता बढ़ती है। और महिलाओं की आर्थिक उन्नति के लिए बैंको द्वारा एक कदम आगे बढता है और बैंकों को इसके फलस्वरुप सामाजिक पहचान बढने में मदद मिलती है। बैंकों की और समूहों की गुणवत्ता जाँची जाती है।
महिलाओं के संघटन में अत्यंत प्रभावशाली होने वाला ये घटक राष्ट्र उद्धार के कार्यकाली घटक माना जायेगा। घर-घर में खुशहाली के दीप जलते नजर आयेंगे। प्रतिव्यक्ति आय बढेगी और देश की आर्थिक प्रगति आसान हो जायेगी। इसलिए स्वयं सहायता यज्ञ राष्ट्र के प्रति समर्पित करने के लिए सभी कार्यकर्ताओं को शुभेच्छा!
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