Monday, June 13, 2011

ऐडिटोरियल हिन्दी फरवरी २००९

चन्द्रमा पर प्लॉट बेचने और खरीदने की चर्चा पिछले दिनों समाचार पत्रों के माध्यम से हम सबके ज्ञान में आयी। प्लाट खरीदने वालों में एक भारतीय पूंजीपति की भी चर्चा थी। यह विश्व के मानव समुदाय के आर्थिक उत्थान की पराकाष्ठा का एक नमूना है। दूसरे ग्रहों पर भी अपना अधिकार जमा सकते हैं, इतनी क्षमता हमने विकसित कर ली है। आर्थिक समृद्धि की यह कहानी विश्व के सशक्त देच्चों की राजनीतिक और आर्थिक राजधानियों में निवास करने वाले लोगों की है जिनकी संखया बहुत मामूली है। भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो आधे से अधिक है, अनेक सरकारी घोषणाओं और आंकडों के बावजूद आर्थिक रूप से अत्यन्त पिछडा है, गरीब है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में किसानों और मजदूरों की दयनीय दशा, जमींदारों और साहूकारों द्वारा उनके शोषण का बहुत ही मार्मिक परन्तु वास्तविक चित्रण हिन्दी साहित्य के उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी कृति रंगभूमि, कर्मभूमि एवं गोदान के माध्यम से किया है। किसानों की बदहाली दूर करने, उनको जमींदारों और साहूकारों के कर्ज और उससे बडे, उसके ब्याज से मुक्ति दिलाने के लिये भारत में सहकारिता आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। फलतः, भारत का प्रत्येक गाँव और शत-प्रतिशत किसान, किसी न किसी रूप में सहकारिता से जुडा हुआ है। आन्दोलन के प्रारम्भ में किसान इससे लाभान्वित हुये परन्तु बाद में सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक रूप से व्यापारिक संस्था होने के कारण आज प्राथमिक स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक सभी सहकारी संस्थायें सहकारी अधिकारियों अथवा सहकारी राजनीतिज्ञों के व्यक्तिगत, आर्थिक हितों का साधन बन चुकी हैं। सहकारी संस्थाओं का उदेश्य-गाँव, गरीब और किसान का उन्नयन केवल कागजी आँकडों में रह गया है।

भारत २०२०, एक स्वप्न--भारत की आर्थिक आजादी का, आर्थिक क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करने का, क्या साठ प्रतिशत की उस आबादी की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन जुटाने और बाद में उनकी वास्तविक आर्थिक उन्नति किये बिना पूरा हो सकता है, जो गांव में रहता है और खेती पर आश्रित है? वह किसान अथवा मजदूर आज भी बिहार, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर, गुजरात, केरल, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में एक ही स्तर का जीवन जीता है। गांव की गरीबी दूर करने के लिये राष्ट्रीयकृत एवं बहुराष्ट्रीय बैंकों द्वारा माइक्रोफाइनांस तथा बीमा कम्पनियों द्वारा माइक्रोइंशोरंस का कार्य तेजी से किया जा रहा है परन्तु क्या इसका इस गरीब को लाभ मिल पा रहा है जिसकी जोत एक एकड़ से भी कम है और जिसके घर में एक बीमार वृद्ध, एक पढने वाला बच्चा, एक शादी लायक बेटी और एक गर्भवती स्त्री रहती है यह बडी-बडी संस्थाऐं भावनात्मक पक्ष से दूर आंकडों की भानीगरी के साथ अपने लाभ के लिये चिन्तित रहती हैं। इनके भरोसे धनी व्यक्ति और धनी तो बन सकता है परन्तु एक गरीब कभी धनी नहीं बन सकता।

अपने देश में सहकारिता वह सशक्त माध्यम है जिससे सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। एक गरीब धनी बन सकता है। एक मजदूर किसान बन सकता है। आवश्यकता है, ग्राम पंचायत स्तर पर स्थापित प्राथमिक सहकारी कृषि ऋण समितियों (पैक्स) एवं लैम्पस का सम्पूर्ण उपयोग करने की। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सजग सरकार द्वारा गठित वैद्यनाथन समिति के सुझावों पर अमल करते हुये भारत के १७ प्रदेशों ने इन समितियों को पुनर्जीवित, अधिक लोकतांत्रिक तथा आर्थिंक रूप से सुदृढ़ करने का कार्य प्रारंभ कर दिया है। इस समितियों के लिये राज्यों के कानून में संशोंधन कर ऐसे प्रावधान बनाये जाने चाहिए जिससे किसान अपने खेत में खाद और उन्नत बीज डालकर अधिक उत्पादन कर सकें और उत्पाद के विपणन की व्यवस्था भी ये समितियां करें। किसान अपने बीमार पिता की दवा के लिए, बेटी के ब्याह के लिये, बेटे के रोजगार के लिये इन्हीं समितियों से ऋण प्राप्त कर सकें तथा घर के किसी सदस्य की दुर्घटना अथवा सामयिक मृत्यु होने पर भी, साथ ही गाय, भैंस, बकरी आदि के निधन पर भी बिना किसी प्रकार का प्रीमियम जमा किये बीमा के रूप में निच्च्िचत रकम प्राप्त कर सकें। यह कल्पना नहीं वास्तविकता है। आन्ध्र प्रदेश में ऐसा हो रहा है।

इस उदेश्य की प्राप्ति एवं इसके स्थायित्व के लिये ध्यान यह रखना होगा कि ये समितियां पूरी तरह लोकतांत्रिक हों और इनका लेखा-जोखा पूर्णतः पारदर्शी हो। आज विकसित संचार एवं सूचना तकनीक द्वारा, यदि चाहें तो भारत सरकार के कृषि एवं सहकारिता विभाग के सचिव किसी भी पैक्स अथवा लैम्प्स की जांच स्वयं कर सकते हैं। यदि वे ऐसा करें तो भारत को दुनिया का समृद्धतम देश बनने से कोई नहीं रोक सकता।

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